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" To Present local Business identity in front of global market"
" To Present local Business identity in front of global market"
2018 में हिंसा कोरेगांव भीमा स्मारक के इतिहास में एक दुखद और विवादास्पद घटना है, जिसने पूरे देश का ध्यान खींचा। यह घटना 1 जनवरी 2018 को हुई, जब भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ की 200वीं वर्षगांठ के अवसर पर हजारों दलित समुदाय के लोग एकत्र हुए थे। इस दौरान हिंसक झड़पें भड़क उठीं, जिसमें 1 व्यक्ति की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हुए। इसके पीछे मुख्य कारण और प्रभाव इस प्रकार हैं:
विरोधी समूहों का टकराव:
दलित समुदाय के लोगों का एक बड़ा जमावड़ा स्मारक पर श्रद्धांजलि देने पहुंचा था। इस दौरान कुछ हिंदुत्ववादी समूहों (जैसे 'शिव प्रतिष्ठान' और 'संभाजी भिड़े') ने विरोध प्रदर्शन किया, जिससे तनाव बढ़ा।
आरोप लगाया गया कि ये समूह पेशवा शासन के "गौरव" को बचाने के नाम पर दलितों के जुलूस को रोकना चाहते थे।
मेमोरियल स्टोन विवाद:
हिंसा से कुछ दिन पहले, गाँव के पास एक मेमोरियल स्टोन बनाया गया था, जिसे कुछ समूहों ने "महारों के विरोध" का प्रतीक बताया। इस स्टोन को तोड़ने की कोशिश से तनाव और बढ़ा।
राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप:
दलित नेताओं ने आरोप लगाया कि ब्राह्मणवादी संगठनों और स्थानीय नेताओं ने हिंसा भड़काई।
विपक्षी दलों ने भाजपा-शिवसेना सरकार पर आरोप लगाए, जबकि सरकार ने इसे "साजिश" बताया।
जान-माल की क्षति:
पुणे जिले के कोरेगांव भीमा और आसपास के इलाकों में हुई झड़पों में 1 व्यक्ति की मृत्यु हुई और करीब 200 लोग घायल हुए।
दलित युवाओं और हिंदुत्व समर्थकों के बीच पथराव, आगजनी और लाठीचार्ज हुआ।
राज्यव्यापी विरोध:
इस घटना के बाद महाराष्ट्र सहित देशभर में दलित समुदाय ने बंद और प्रदर्शन किए।
मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद जैसे शहरों में सामाजिक न्याय और जातिगत हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई गई।
राजनीतिक भूचाल:
महाराष्ट्र सरकार पर "दलित विरोधी" होने के आरोप लगे।
दलित नेता प्रकाश आंबेडकर (बी.आर. आंबेडकर के पोते) ने सरकार की कार्रवाई पर सवाल उठाए।
महाराष्ट्र पुलिस ने माओवादी साजिश का आरोप लगाते हुए कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया, जिनमें सुधा भारद्वाज, वरवर राव, और गौतम नवलखा शामिल हैं।
आरोप था कि इन लोगों ने "भीमा कोरेगांव हिंसा" को भड़काने के लिए षड्यंत्र रचा। हालाँकि, कई संगठनों ने इन गिरफ्तारियों को "दलित आवाजों को दबाने की कोशिश" बताया।
2023 तक, यह मामला अदालत में लंबित है, और कई कार्यकर्ता जेल में बंद हैं।
यह घटना भारत में जातिगत विभाजन और सामाजिक न्याय की बहस को फिर से उजागर कर गई।
दलित समुदाय ने इसे अपने इतिहास और गौरव पर हमला माना, जबकि कुछ समूहों ने "वास्तविक इतिहास" को तोड़-मरोड़ने का आरोप लगाया।
आज भी, 1 जनवरी को कोरेगांव भीमा में सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए जाते हैं, ताकि शांति बनी रहे।
अन्य प्रमुख अभियान: डॉ. बी.आर. अंबेडकर के संघर्ष और योगदान
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत में सामाजिक न्याय, शिक्षा, और दलित उत्थान के लिए कई ऐतिहासिक अभियान चलाए। यहाँ उनके कुछ अन्य महत्वपूर्ण आंदोलनों और योगदानों का विवरण है:
इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936):
अंबेडकर ने मजदूरों, किसानों, और दलितों को एकजुट करने के लिए यह पार्टी बनाई।
मुख्य मांगें:
काम के घंटे 14 से घटाकर 8 करना।
न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण।
महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश।
प्रभाव: यह पार्टी बॉम्बे विधानसभा में दलितों और मजदूरों की आवाज़ बनी।
सिद्धार्थ कॉलेज (1923):
अंबेडकर ने मुंबई में इस कॉलेज की स्थापना की, जो दलितों और गरीबों को शिक्षा देने का केंद्र बना।
पीपल्स एजुकेशन सोसाइटी (1945):
शिक्षा को सामाजिक बदलाव का हथियार बताते हुए इस संस्था के माध्यम से स्कूल और हॉस्टल बनवाए।
उद्देश्य: महिलाओं को संपत्ति, तलाक, और उत्तराधिकार में समान अधिकार दिलाना।
मुख्य प्रावधान:
विवाह और तलाक के लिए समान कानून।
महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी।
विरोध: रूढ़िवादी नेताओं और धार्मिक समूहों के विरोध के कारण बिल पूरी तरह पास नहीं हो सका, लेकिन इसने महिला अधिकारों की बहस को आगे बढ़ाया।
लक्ष्य: दलितों को राजनीतिक रूप से संगठित करना।
मांगें:
दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल।
शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण।
14 अक्टूबर 1956: अंबेडकर ने नागपुर में अपने 5 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया।
कारण:
हिंदू धर्म की जातिवादी व्यवस्था से मुक्ति।
बौद्ध धर्म के समानता, तर्क, और करुणा के सिद्धांतों को अपनाना।
प्रभाव: यह आंदोलन दलितों के लिए सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आत्मसम्मान का प्रतीक बना।
भागीदारी: अंबेडकर ने लंदन में हुए तीन गोलमेज सम्मेलनों में दलितों के अधिकारों को वैश्विक मंच पर उठाया।
मांगें:
दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल।
शिक्षा और रोजगार में समान अवसर।
परिणाम: गांधी जी के साथ हुए पूना पैक्ट (1932) के तहत दलितों को विधानसभाओं में आरक्षण मिला।
मूकनायक (1920): मराठी में प्रकाशित इस साप्ताहिक अख़बार ने दलितों की आवाज़ बुलंद की।
जनता (1930): हिंदी और मराठी में छपने वाले इस अख़बार ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई को मजबूती दी।
बैंक ऑफ़ इंडिया (1946):
अंबेडकर ने दलितों और गरीबों को वित्तीय स्वावलंबन देने के लिए इस बैंक की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कृषि सुधार: भूमिहीन किसानों के लिए ज़मीन के पुनर्वितरण की वकालत की।
संविधान सभा के अध्यक्ष: अंबेडकर ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया, जिसमें समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व के सिद्धांत शामिल किए।
महत्वपूर्ण अनुच्छेद:
अनुच्छेद 17: छुआछूत का उन्मूलन।
अनुच्छेद 15-16: जाति, लिंग, धर्म के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध।
अनुच्छेद 32: संवैधानिक उपचार का अधिकार।
कोलंबिया विश्वविद्यालय (1913-1916):
अंबेडकर ने अपने शोध के माध्यम से भारत में जातिवाद की समस्या को वैश्विक स्तर पर उठाया।
यूएनओ में भाषण (1950):
उन्होंने कहा: "जब तक समाज में जाति है, भारत विकास नहीं कर सकता।"
डॉ. अंबेडकर के ये अभियान न सिर्फ़ दलितों, बल्कि पूरे भारत के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को बदलने की नींव बने। उन्होंने साबित किया कि "संघर्ष और शिक्षा के बल पर ही गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ी जा सकती हैं।" आज भी ये आंदोलन उन लाखों लोगों के लिए प्रेरणा हैं, जो समानता और गरिमा की लड़ाई लड़ रहे हैं।
स्मरणीय वाक्य: "मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ, जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा सिखाए।"
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर
पेशवा कौन थे? पेशवा मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने 18वीं सदी में शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारियों के नाममात्र के शासनकाल में वास्तविक सत्ता संभाली। पेशवाओं का शासन (1713–1818) मराठा साम्राज्य के विस्तार का समय था, लेकिन सामाजिक रूप से यह काल जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, और दलित उत्पीड़न के लिए कुख्यात रहा।
जातिगत भेदभाव की चरम सीमा:
दलितों (महार, चमार, मांग, आदि) को "अछूत" घोषित किया गया। उन्हें गाँव की सीमा से बाहर बसने, सार्वजनिक कुँओं से पानी लेने, और मंदिरों में प्रवेश करने से रोका जाता था।
दलितों को गले में हांडी बाँधनी पड़ती थी, ताकि उनकी लार ज़मीन पर न गिरे। पैरों में घुंघरू बाँधे जाते थे, ताकि उनकी मौजूदगी का पता चल सके।
शारीरिक अपमान और यातनाएँ:
दलितों को सिर पर पगड़ी बाँधने, सोने-चाँदी के गहने पहनने, या घोड़े पर चढ़ने की मनाही थी।
किसी दलित का ऊँची जाति के व्यक्ति की छाया में चलना भी अपराध माना जाता था। ऐसा करने पर कोड़ों से मार या जुर्माना लगाया जाता था।
अमानवीय कानून:
मनुस्मृति के नियमों को कठोरता से लागू किया जाता था। उदाहरण:
यदि कोई दलित वेद पढ़ लेता, तो उसके कान में पिघला सीसा डाला जाता था।
दलित महिलाएँ ऊपरी वस्त्र पहनने के लिए बाध्य नहीं थीं, ताकि उनकी पहचान बनी रहे।
धार्मिक कट्टरता:
पेशवाओं ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बढ़ावा दिया। ब्राह्मणों को करमुक्त भूमि और विशेषाधिकार मिलते थे, जबकि दलितों को मंदिरों में प्रवेश तक नहीं था।
बालाजी बाजी राव (नानासाहेब पेशवा) के समय में दलितों के खिलाफ हिंसा चरम पर थी।
महारों का सैन्य बहिष्कार:
शिवाजी महाराज ने महार समुदाय को सेना में शामिल किया था, लेकिन पेशवाओं ने उन्हें सेना से निकाल दिया और मृत पशुओं का चमड़ा उतारने जैसे घृणित कामों में धकेल दिया।
महाड़ सत्याग्रह (1927) का संदर्भ:
डॉ. अंबेडकर ने चवदार तालाब के पानी के अधिकार के लिए आंदोलन किया, जो पेशवा काल में दलितों के लिए वर्जित था।
ब्रिटिश दस्तावेज़ों में उल्लेख:
ब्रिटिश अधिकारी माउंटस्टुअर्ट एल्फिन्स्टन ने अपनी पुस्तक "राइज़ ऑफ़ द मराठा पावर" में लिखा: "पेशवाओं के शासन में दलितों की स्थिति पशुओं से भी बदतर थी।"
शिवाजी महाराज ने सर्वजन सुखाय की नीति अपनाई थी और सभी जातियों को समान अवसर दिए थे।
पेशवाओं ने इस नीति को धता बताकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व स्थापित किया, जिससे समाज में विषमता बढ़ी।
दलित आंदोलनों को प्रेरणा:
पेशवा काल के अत्याचारों ने ज्योतिबा फुले, डॉ. अंबेडकर, और पेरियार जैसे नेताओं को सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए प्रेरित किया।
मनुस्मृति दहन (1927):
डॉ. अंबेडकर ने पेशवाओं द्वारा थोपे गए मनुस्मृति के नियमों के विरोध में इस ग्रंथ का सार्वजनिक दहन किया।
सांस्कृतिक प्रतिरोध:
दलित साहित्य और लोकगीतों में पेशवा अत्याचारों का ज़िक्र मिलता है, जो उनके संघर्ष और गौरव की गाथा कहता है।
निष्कर्ष: पेशवा शासन का काल भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है, जहाँ मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ। यह युग हमें याद दिलाता है कि जातिवाद और धार्मिक कट्टरता किस तरह समाज को विघटित कर सकते हैं। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में: "पेशवाओं ने शिवाजी के सपने को धोखा दिया, पर हमने अपने संघर्ष से नया इतिहास रचा है।"
Read Full Blog...अन्य प्रमुख अभियान एवं आंदोलन: डॉ. अंबेडकर और दलित अधिकारों की लड़ाई
भारत में सामाजिक न्याय और दलित उत्थान के लिए डॉ. बी.आर. अंबेडकर और अन्य नेताओं ने कई ऐतिहासिक अभियान चलाए। यहाँ कुछ प्रमुख आंदोलनों का विवरण है:
उद्देश्य: नासिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश का अधिकार सुनिश्चित करना।
घटनाक्रम:
अंबेडकर के नेतृत्व में हज़ारों दलितों ने मंदिर के दरवाज़े पर धरना दिया।
पुजारियों और रूढ़िवादियों ने विरोध किया, लेकिन आंदोलन ने देशभर में जातिवाद के खिलाफ चेतना जगाई।
प्रभाव: यह आंदोलन धार्मिक भेदभाव के खिलाफ प्रतीकात्मक जीत बना।
इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936):
अंबेडकर ने मजदूरों, किसानों, और दलितों को एकजुट करने के लिए यह पार्टी बनाई।
मांगें: न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटे तय करना, और भूमि सुधार।
बॉम्बे विधानसभा भाषण (1937):
अंबेडकर ने कहा: "मजदूरों की मेहनत पर पूंजीपतियों का शोषण बंद होना चाहिए!"
संविधान सभा के अध्यक्ष: अंबेडकर ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया।
महत्वपूर्ण प्रावधान:
अनुच्छेद 17: छुआछूत का उन्मूलन।
अनुच्छेद 15-16: धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध।
अनुच्छेद 32: संवैधानिक उपचार का अधिकार।
नागपुर धर्मांतरण (14 अक्टूबर 1956):
अंबेडकर ने अपने 5 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया।
कारण: हिंदू धर्म की जातिवादी व्यवस्था से मुक्ति और समानता आधारित जीवन।
प्रभाव: यह आंदोलन दलितों के लिए सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आत्मसम्मान का प्रतीक बना।
हिंदू कोड बिल (1951):
अंबेडकर ने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार, तलाक का अधिकार, और लैंगिक समानता का प्रस्ताव रखा।
रूढ़िवादी विरोध के कारण बिल पूरी तरह पास नहीं हुआ, लेकिन बाद में इसके कुछ हिस्से लागू किए गए।
सिद्धार्थ कॉलेज (1923):
अंबेडकर ने मुंबई में दलितों के लिए यह कॉलेज स्थापित किया।
पढ़ो और संगठित होने का आह्वान:
उनका नारा था: "शिक्षा शेरनी का दूध है, जो इसे पिएगा वह दहाड़ेगा!"
उद्देश्य: दलितों को राजनीतिक रूप से संगठित करना।
मांगें:
पृथक निर्वाचन मंडल।
शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण।
गोलमेज सम्मेलन (1930-32):
अंबेडकर ने लंदन में दलितों के अधिकारों को वैश्विक स्तर पर उठाया।
उन्होंने कहा: "भारत में दलितों की स्थिति दासों से भी बदतर है।"
मूकनायक (1920): अंबेडकर का मराठी साप्ताहिक, जिसने दलितों की आवाज़ बुलंद की।
जनता (1930): हिंदी और मराठी में प्रकाशित इस पत्र ने सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई को मजबूती दी।
बैंक ऑफ इंडिया (1946):
अंबेडकर ने दलितों और गरीबों के लिए वित्तीय स्वावलंबन हासिल करने के लिए इस बैंक की स्थापना में भूमिका निभाई।
कृषि सुधार: भूमिहीन मजदूरों के लिए ज़मीन का पुनर्वितरण।
डॉ. अंबेडकर के ये अभियान न सिर्फ़ दलित बल्कि पूरे भारत के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को बदलने की नींव बने। उन्होंने साबित किया कि "संघर्ष और शिक्षा के बल पर ही गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ी जा सकती हैं।" आज भी ये आंदोलन उन लाखों लोगों के लिए प्रेरणा हैं, जो समानता और गरिमा की लड़ाई लड़ रहे हैं।
स्मरणीय वाक्य:
"मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ, जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा सिखाए।" -डॉ. बी.आर. अंबेडकर
दलित एकजुटता: सामाजिक न्याय और स्वाभिमान की लड़ाई
दलित एकजुटता भारत में सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक सामूहिक संघर्ष है। यह आंदोलन दलित समुदाय को शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, और सामाजिक गरिमा के लिए संगठित करने का प्रयास है। यहाँ इसके प्रमुख पड़ाव और नायकों की कहानी है:
ज्योतिबा फुले (1827-1890):
"सत्यशोधक समाज" (1873) के माध्यम से दलितों और महिलाओं को शिक्षा और समान अधिकारों के लिए जागरूक किया।
"गुलामगिरी" किताब में जातिवाद की कटु आलोचना की।
पेरियार ई.वी. रामासामी (1879-1973):
तमिलनाडु में आत्मसम्मान आंदोलन चलाकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर (1891-1956):
बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924) और इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936) बनाई।
महाड़ सत्याग्रह (1927) और मनुस्मृति दहन के ज़रिए जातिवादी नियमों का विरोध किया।
संविधान में अनुच्छेद 17 (छुआछूत उन्मूलन) और आरक्षण की व्यवस्था लागू करवाई।
दलित पैंथर्स (1972):
महाराष्ट्र में नामदेव ढसाल, राजा ढाले, और जे.वी. पवार ने इस आंदोलन की शुरुआत की।
नारा दिया: "जो तुम्हारा शोषण करे, उसका सिर फोड़ दो!"
साहित्य, कविता, और स्ट्रीट प्ले के ज़रिए दलित युवाओं को जगाया।
कांशी राम (1934-2006) और बहुजन समाज पार्टी (BSP):
"बहुजन" (दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक) को एकजुट करने का आह्वान किया।
नारा: "जिसकी जितनी संख्या-भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी!"
मायावती के नेतृत्व में BSP ने उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल की और दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाया।
रोहित वेमुला आंदोलन (2016):
हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव को उजागर किया।
"जय भीम" और "डॉ. अंबेडकर छात्र संघ" जैसे संगठनों ने देशव्यापी प्रदर्शन किए।
उना आंदोलन (2016):
गुजरात के उना में दलित युवाओं की सार्वजनिक पिटाई के विरोध में लाखों लोग सड़कों पर उतरे।
"चलो, उना!" नारे के साथ दलित समुदाय ने मैनुअल स्कैवेंजिंग के खिलाफ आवाज़ उठाई।
भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ समारोह:
हर साल 1 जनवरी को महाराष्ट्र के कोरेगांव में लाखों दलित एकत्र होकर 1818 की जीत का जश्न मनाते हैं।
यह आयोजन दलित गौरव और एकजुटता का प्रतीक बन गया है।
दलित साहित्य:
ओमप्रकाश वाल्मीकि ("जूठन"), बामा फ़ातिमा ("करुक्कु"), और सुशीला टाकभौरे जैसे लेखकों ने दलित जीवन की पीड़ा को शब्द दिए।
मराठी दलित पैंथर साहित्य ने क्रांतिकारी विचारों को बढ़ावा दिया।
कला और संगीत:
कबीर कला मंच और दलित रैप संगीत (जैसे डॉ. बोले और सम्पत सरदार) ने युवाओं को जागरूक किया।
डिजिटल एक्टिविज़्म:
सोशल मीडिया पर #DalitLivesMatter, #JusticeForRohith, और #StopCasteBasedViolence जैसे हैशटैग ने वैश्विक स्तर पर चर्चा शुरू की।
आंतरिक विभाजन:
दलित समुदाय में उप-जातियों (जैसे महार, चमार, धनुक) के बीच एकता का अभाव।
राजनीतिक सीमाएँ:
दलित नेताओं पर "टोकनिज़्म" (प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व) और जातिवादी दलों से समझौते की आलोचना।
सामाजिक प्रतिरोध:
खैरलांजी (2006), हाथरस (2020), और सहारनपुर (2017) जैसी हिंसक घटनाएँ दलित सुरक्षा पर सवाल खड़े करती हैं।
शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण:
डॉ. अंबेडकर के सिद्धांत: "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो!"
अंतर-जातीय गठजोड़:
बहुजन एकता (दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक) को मजबूत करना।
वैश्विक समर्थन:
संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों के साथ जातिवाद के खिलाफ मुहिम।
दलित एकजुटता न सिर्फ़ एक सामाजिक आंदोलन है, बल्कि मानवीय गरिमा और समानता की लड़ाई है। यह संघर्ष डॉ. अंबेडकर के शब्दों में आगे बढ़ रहा है: "हमें अपना इतिहास खुद लिखना होगा, और वह इतिहास स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारे का होगा।" आज भी यह आंदोलन याद दिलाता है कि **"जाति तोड़ो, एकजुट बनो!"
Read Full Blog...महार समुदाय का इतिहास: महार भारत की एक दलित जाति है, जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र में निवास करती है। पेशवा शासन (18वीं सदी) के दौरान उन्हें "अछूत" माना जाता था और उन पर जातिगत भेदभाव, आर्थिक शोषण, और सामाजिक बहिष्कार की नीतियाँ लागू थीं। महारों को गाँव की सीमा पर रहने, मृत पशुओं को उठाने, और सैन्य सेवा जैसे कठिन काम करने के लिए मजबूर किया जाता था।
पेशवा शासन के अत्याचार:
पेशवाओं ने महारों को सैन्य और प्रशासनिक भूमिकाओं से वंचित रखा, जिससे वे ब्रिटिश सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित हुए।
ब्रिटिशों की रणनीति:
अंग्रेज़ों ने महारों की युद्ध कौशल और स्थानीय ज्ञान को पहचाना। उन्हें "अछूत" होने के बावजूद सेना में भर्ती किया गया, क्योंकि वे मराठा साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई में मददगार साबित हो सकते थे।
कोरेगांव की लड़ाई (1 जनवरी 1818):
500 महार सैनिकों ने पेशवा बाजीराव II की 28,000 सैनिकों वाली सेना को हराया।
यह लड़ाई महारों के साहस और रणनीतिक कौशल का प्रतीक बनी।
इस विजय की याद में भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ बनाया गया, जिस पर शहीद महार सैनिकों के नाम अंकित हैं।
अन्य अभियान:
प्रथम एंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782): महारों ने ब्रिटिशों को मराठा किलों पर कब्ज़ा करने में मदद की।
द्वितीय एंग्ल-सिख युद्ध (1848-49): महार रेजीमेंट ने पंजाब में सिख सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
1857 का विद्रोह: महार सैनिकों ने ब्रिटिशों के पक्ष में लड़कर विद्रोह को दबाने में भूमिका निभाई।
गठन: 1813 में महार नेटिव इन्फैंट्री के रूप में पहली बार महारों की अलग रेजीमेंट बनी।
विशेषताएँ:
महार सैनिक गुरिल्ला युद्ध और जंगल इलाकों में लड़ाई में माहिर थे।
उन्हें वफादारी और अनुशासन के लिए जाना जाता था।
भंग होना: 1892 में ब्रिटिशों ने "मार्शल रेस" के सिद्धांत के तहत महार रेजीमेंट को भंग कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि ये "युद्ध के लिए अनुपयुक्त" हैं।
सामाजिक उत्थान का रास्ता:
सैन्य सेवा ने महारों को आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक सम्मान दिलाया।
डॉ. अंबेडकर के पिता रामजी सकपाल भी ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे, जिससे अंबेडकर को शिक्षा और प्रेरणा मिली।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका:
कुछ महार सैनिक बाद में भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) में शामिल हुए और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।
महार रेजीमेंट का पुनर्गठन:
1941 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिशों ने फिर से महार रेजीमेंट बनाई।
स्वतंत्र भारत में यह रेजीमेंट भारतीय सेना का गौरवशाली हिस्सा बनी और कारगिल युद्ध (1999) जैसे अभियानों में शामिल रही।
कर्नल जॉन ब्रिग्स (1818) ने लिखा: "महार सैनिकों ने अद्भुत वीरता दिखाई। उनके बिना कोरेगांव की जीत असंभव थी।"
ब्रिटिश सेना के अधिकारी ने टिप्पणी की: "ये सैनिक प्रकृति के योद्धा हैं, जो भूख और थकान को झेल सकते हैं।"
महारों की सैन्य सेवा ने साबित किया कि जाति किसी की योग्यता का मापदंड नहीं।
डॉ. अंबेडकर ने कहा: "महारों ने सैन्य बल से नहीं, बल्कि अपने संकल्प से पेशवाओं की गुलामी को चुनौती दी।"
यह इतिहास दलित समुदाय को स्वाभिमान और सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए प्रेरित करता है।
निष्कर्ष: ब्रिटिश सेना में महारों की भूमिका न केवल एक सैन्य अध्याय है, बल्कि जातिगत भेदभाव के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणादायक गाथा है। यह साबित करता है कि "शक्ति जन्म से नहीं, संकल्प से आती है।"
Read Full Blog...स्थान और महत्व: भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में भीमा नदी के किनारे स्थित एक ऐतिहासिक स्मारक है। यह स्तंभ 1 जनवरी 1818 को हुए कोरेगांव की लड़ाई में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की जीत की याद में बनाया गया था। इस लड़ाई में अधिकांश सैनिक महार जाति (दलित समुदाय) के थे, जिन्होंने पेशवा बाजीराव II की सेना को हराया था। यह स्तंभ दलित समुदाय के लिए सामाजिक गौरव और वीरता का प्रतीक बन गया है।
लड़ाई का कारण: पेशवा शासन (ब्राह्मणवादी व्यवस्था) के दौरान महार समुदाय को घोर जातिगत उत्पीड़न झेलना पड़ता था। पेशवा सैनिकों ने महारों को अछूत माना और उन पर अत्याचार किए।
ब्रिटिश सेना में महारों की भूमिका: ब्रिटिश सेना ने महार सैनिकों को अपनी रेजीमेंट में शामिल किया, क्योंकि उनकी वीरता और निष्ठा प्रसिद्ध थी।
लड़ाई का नतीजा: महार सैनिकों ने पेशवा की 28,000 सैनिकों वाली सेना के खिलाफ मात्र 500 सैनिकों के साथ जीत हासिल की।
स्थापना: 1821 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस स्तंभ का निर्माण कराया।
डिज़ाइन: स्तंभ की ऊँचाई लगभग 60 फीट है, जिस पर महार रेजीमेंट के 49 शहीद सैनिकों के नाम अंकित हैं।
शिलालेख: स्तंभ पर लिखा है – "इस स्थान पर ब्रिटिश सेना ने पेशवा की विशाल सेना को हराया, जो उनके साहस और अनुशासन का प्रमाण है।"
सामाजिक गौरव का प्रतीक:
महार सैनिकों की जीत को दलित समुदाय ने जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ विजय के रूप में देखा।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने 1 जनवरी 1927 को इस स्थान का दौरा किया और इसे दलित अस्मिता का प्रतीक बताया।
वार्षिक समारोह (शौर्य दिवस):
हर साल 1 जनवरी को लाखों दलित यहाँ एकत्र होकर विजय स्तंभ को नमन करते हैं और सामाजिक न्याय की शपथ लेते हैं।
इस दिन को "दलित प्राइड डे" के रूप में मनाया जाता है।
बाइसेन्टेनियल सेलिब्रेशन: 1 जनवरी 2018 को कोरेगांव की लड़ाई के 200 साल पूरे होने पर एक बड़ा जनसमूह इकट्ठा हुआ।
हिंसक झड़पें: कुछ समूहों ने जुलूस पर हमला कर दिया, जिससे हिंसा भड़क गई। इस घटना में एक व्यक्ति की मौत और सैकड़ों लोग घायल हुए।
कानूनी कार्रवाई: महाराष्ट्र पुलिस ने कथित तौर पर माओवादी संपर्कों के आरोप में कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया, जिसे "भीमा कोरेगांव मामला" कहा गया।
दलित एकजुटता: यह स्तंभ दलितों को उनके इतिहास और वीरता की याद दिलाता है, जो उन्हें सामाजिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देता है।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण: दलित साहित्य, कला, और संगीत में कोरेगांव की लड़ाई को सशक्तिकरण के प्रतीक के रूप में दर्शाया जाता है।
पर्यटन और शिक्षा: यह स्थल अब एक राष्ट्रीय स्मारक है, जहाँ देशभर से लोग इतिहास और सामाजिक न्याय के बारे में जानने आते हैं।
सुरक्षा चुनौतियाँ: 2018 की हिंसा के बाद से यहाँ भारी पुलिस बल तैनात रहता है, खासकर 1 जनवरी को।
भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ सिर्फ़ एक ऐतिहासिक स्मारक नहीं, बल्कि दलित अस्मिता, साहस, और संघर्ष का जीवंत प्रतीक है। यह समाज को याद दिलाता है कि "जातिवाद के खिलाफ लड़ाई में इतिहास की भूमिका अमर है।" जैसा कि डॉ. अंबेडकर ने कहा था: "शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो!"
Read Full Blog...भारत में दलित अधिकारों के लिए संघर्ष सदियों पुराना है, जो सामाजिक न्याय, समानता, और मानवीय गरिमा की लड़ाई का प्रतीक है। यह संघर्ष जातिवाद, छुआछूत, और सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ एक सामूहिक आवाज़ बना। यहाँ इसके प्रमुख पड़ाव और नायकों की कहानी है:
ज्योतिबा फुले (1827-1890):
"सत्यशोधक समाज" (1873) की स्थापना करके दलितों और महिलाओं के शिक्षा के अधिकार की लड़ाई शुरू की।
"गुलामगिरी" (1873) किताब लिखकर जातिवाद की आलोचना की।
पेरियार ई.वी. रामासामी (1879-1973):
तमिलनाडु में "आत्मसम्मान आंदोलन" चलाया, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ था।
महाड़ सत्याग्रह (1927):
महाराष्ट्र के महाड़ में चवदार तालाब से दलितों को पानी पीने का अधिकार दिलाया।
मनुस्मृति दहन (25 दिसंबर 1927) के ज़रिए जातिवादी ग्रंथों का विरोध किया।
पूना पैक्ट (1932):
गांधी और अंबेडकर के बीच समझौता, जिसमें दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू हुई।
संविधान निर्माण (1947-1950):
अंबेडकर ने भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 (छुआछूत उन्मूलन), अनुच्छेद 15-16 (समानता) जैसे प्रावधान जोड़े।
दलित पैंथर्स (1972):
महाराष्ट्र में नामदेव ढसाल और राजा ढाले ने दलित पैंथर्स की स्थापना की, जो साहित्य और आंदोलनों के माध्यम से जागरूकता फैलाई।
मंडल आयोग (1990):
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को आरक्षण देने की सिफारिशों के लिए हुए आंदोलनों ने दलित-बहुजन एकता को मजबूत किया।
भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ (2018):
महाराष्ट्र में दलित समुदाय ने ब्रिटिश सेना में लड़े महार योद्धाओं की याद में जुटकर सामाजिक गौरव का प्रदर्शन किया।
छुआछूत विरोधी कानून (1955):
अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (अब SC/ST एक्ट) लागू हुआ, जो दलितों के खिलाफ भेदभाव को दंडित करता है।
रोहित वेमुला की आत्महत्या (2016):
हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की मौत ने शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव पर बहस छेड़ी।
उना आंदोलन (2016):
गुजरात में दलित युवाओं की पिटाई के विरोध में हुए प्रदर्शनों ने देशभर में सामाजिक न्याय की मांग को तेज़ किया।
साहित्यिक विद्रोह:
ओमप्रकाश वाल्मीकि ("जूठन"), बामा फ़ातिमा ("करुक्कु"), और मराठी लेखक बाबुराव बागुल ने दलित जीवन की पीड़ा को शब्द दिए।
जनजागरण के प्रतीक:
भीम जयंती (14 अप्रैल) और महाराष्ट्र का "विजय दशमी" (मनुस्मृति दहन दिवस) दलित गर्व के प्रतीक बने।
जातिगत हिंसा:
खैरलांजी (2006), उत्तर प्रदेश का हाथरस मामला (2020) जैसी घटनाएँ दलित सुरक्षा पर सवाल खड़े करती हैं।
शिक्षा और रोज़गार:
आरक्षण नीतियों के बावजूद दलितों तक उच्च शिक्षा और नौकरियों में समान पहुँच अभी भी एक लक्ष्य है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
दलित नेता मायावती, चंद्रशेखर आजाद "रावण", और जिग्नेश मेवाणी आज भी सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं।
दलित अधिकारों का संघर्ष न सिर्फ़ कानूनी बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति की मांग करता है। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में: "राजनीतिक सत्ता समाज की बुराइयों का इलाज नहीं है। समाज को नैतिक बनाना होगा।" यह संघर्ष आज भी जारी है, क्योंकि "समानता का अधिकार अभी अधूरा है।"
Read Full Blog...पृष्ठभूमि: मनुस्मृति (या मानव धर्मशास्त्र) एक प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथ है, जिसे लगभग 200 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी के बीच लिखा गया माना जाता है। यह ग्रंथ सामाजिक व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, और स्त्री-पुरुष के कर्तव्यों को परिभाषित करता है। इसमें दलितों और महिलाओं के प्रति अपमानजनक और असमान नियमों का उल्लेख है, जिसके कारण यह सदियों से सामाजिक भेदभाव का प्रतीक बना रहा।
तिथि और स्थान: 25 दिसंबर 1927 को महाराष्ट्र के महाड़ शहर में।
नेतृत्व: डॉ. भीमराव अंबेडकर और उनके सहयोगियों ने इसका आयोजन किया।
संदर्भ: यह घटना महाड़ सत्याग्रह का हिस्सा थी, जिसमें दलितों को सार्वजनिक तालाब (चवदार तालाब) से पानी पीने का अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया गया।
जातिगत असमानता का विरोध:
मनुस्मृति में दलितों को "अछूत" और शूद्रों को निम्न स्थान देने वाले नियमों का सार्वजनिक रूप से विरोध करना।
अंबेडकर का कहना था: "मनुस्मृति भारतीय समाज की बेड़ियाँ हैं, जिन्हें तोड़ना ज़रूरी है।"
सामाजिक चेतना जगाना:
दलित समुदाय को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाना।
प्रतीकात्मक क्रांति:
ग्रंथ को जलाना एक प्रतीकात्मक कार्य था, जो यह संदेश देता था कि समाज को जातिवाद और असमानता पर आधारित ग्रंथों को नकारना चाहिए।
सभा का आयोजन: महाड़ में हज़ारों दलितों और सुधारवादियों की एक सभा हुई।
मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाई गईं: अंबेडकर ने कहा, "यह ग्रंथ हमें गुलाम बनाता है, इसे आग के हवाले करो!"
ऐतिहासिक भाषण: अंबेडकर ने कहा, "मनुस्मृति ने हमें सदियों से दबाया है। आज हम इसकी आग में अपनी आज़ादी की लौ जलाएँगे!"
रूढ़िवादियों का विरोध:
कट्टरपंथी समूहों ने इस घटना की निंदा की और अंबेडकर को हिंदू धर्म का "दुश्मन" बताया।
दलित चेतना का उभार:
यह घटना दलितों के लिए गर्व और आत्मसम्मान का प्रतीक बनी।
इसके बाद देशभर में जातिगत भेदभाव के खिलाफ आंदोलन तेज़ हुए।
संविधान निर्माण की नींव:
अंबेडकर के इस संघर्ष ने भारतीय संविधान में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल करने की राह बनाई।
प्रथम सार्वजनिक विद्रोह: यह पहली बार था जब किसी धार्मिक ग्रंथ को सामाजिक अन्याय के प्रतीक के रूप में जलाया गया।
बौद्धिक क्रांति का प्रतीक: अंबेडकर ने दिखाया कि शिक्षा और तर्क के बल पर पुरानी मान्यताओं को चुनौती दी जा सकती है।
आधुनिक भारत की प्रेरणा: यह घटना आज भी सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले समूहों के लिए प्रेरणास्रोत है।
उन्होंने कहा था: "मनुस्मृति को जलाना कोई धार्मिक कार्य नहीं, बल्कि मानवता के नाम पर एक नैतिक कर्तव्य है।"
उनका लक्ष्य था: "ऐसा समाज बनाना, जहाँ हर व्यक्ति को उसकी मेहनत और योग्यता के आधार पर सम्मान मिले।"
निष्कर्ष: मनुस्मृति दहन सिर्फ़ एक ग्रंथ को जलाने की घटना नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का ऐलान था। यह आज भी उन लोगों के लिए मशाल की तरह है, जो जातिवाद, लैंगिक भेदभाव और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ लड़ते हैं।
Read Full Blog...जन्म और प्रारंभिक जीवन: डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू (तब मध्य भारत, अब डॉ. अंबेडकर नगर) में एक गरीब दलित (महार जाति) परिवार में हुआ था। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल सेना में सूबेदार थे, और माता भीमाबाई एक गृहिणी थीं। जातिगत भेदभाव के कारण बचपन से ही उन्हें सामाजिक अपमान और अलगाव झेलना पड़ा।
प्रारंभिक शिक्षा:
स्कूल में उन्हें "अछूत" मानकर अलग बैठाया जाता था। पानी पीने के लिए छूत के डर से कोई मदद नहीं करता था।
1907 में मैट्रिक पास करने वाले पहले दलित छात्र बने।
उच्च शिक्षा:
1913 में बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति से अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय गए, जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में एमए और पीएचडी की।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से भी अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
संस्कृत, फ्रेंच, जर्मन, और अंग्रेजी सहित 9 भाषाओं के ज्ञाता थे।
दलित अधिकारों के लिए संघर्ष:
1927 में महाड़ सत्याग्रह चलाया, जहाँ दलितों को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने का अधिकार दिलाया।
1930 में नाशिक के कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए आंदोलन किया।
मनुस्मृति दहन:
1927 में ही उन्होंने मनुस्मृति (जो जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देती है) का सार्वजनिक रूप से दहन किया।
पूना पैक्ट (1932):
गांधी जी के साथ हुए इस समझौते में दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल के बजाय आरक्षण की व्यवस्था की गई।
संविधान निर्माता:
स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री बने और संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया।
संविधान में समानता, स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को शामिल कर दलितों, महिलाओं, और श्रमिकों के अधिकार सुनिश्चित किए।
14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया।
उनका मानना था कि बौद्ध धर्म समानता और तर्क पर आधारित है, जो जातिवाद को खत्म कर सकता है।
"जाति का विनाश" (Annihilation of Caste)
"भारत का राष्ट्रीय विभाजन" (Pakistan or Partition of India)
"बुद्ध और उनका धम्म"
6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया।
उन्हें भारत रत्न (1990, मरणोपरांत), "बाबासाहेब" और "संविधान निर्माता" के सम्मान से जाना जाता है।
14 अप्रैल को उनके जन्मदिन को "भीम जयंती" के रूप में मनाया जाता है, जो भारत में एक सार्वजनिक अवकाश है।
"शिक्षित बनो, संगठित रहो, और संघर्ष करो।"
"मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा सिखाए।"
"राजनीतिक सत्ता समाज की बुराइयों का इलाज नहीं है। सामाजिक बुराइयों को खत्म करना ज़रूरी है।"
डॉ. अंबेडकर की विरासत आज भी भारत में सामाजिक न्याय, शिक्षा, और दलित उत्थान के प्रतीक के रूप में जीवित है। उनके समर्थक उन्हें "आधुनिक भारत का मसीहा" मानते हैं।
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